बहुत ही काम लोग यह जानते हैं – शिव ताण्डव स्तोत्र (Shiva Tandava Stotram) या शिवताण्डवस्तोत्रम् लंकापति रावण द्वारा रचित शिव का स्तोत्र है. सभी जानते हैं के रावण परम शिव भक्त था.
शास्त्रों के अनुसार – रावण ने संसार को अपने बल का परिचय देने के लिए अहंकार वश कैलाश पर्वत उठा लिया था। उसकी मंशा थी की शिवजी को कैलाश पर्वत के साथ लंका ले जाए।
भगवान भोलेनाथ की लीला महान है। शिव जी ने रावण का अहंकार तोड़ने के लिए अपने पैर के अंगूठे से कैलाश पर्वत को दबाकर उसे वापिस अपने स्थान पे ही स्थिर करा।
अहंकारी रावण का हाथ अब कैलाश पर्वत के नीचे ही दब गया और उसे अत्यंत पीड़ा हुई। पीड़ा वश वह कराहते हुई चिल्लाया – शिव शंकर शिव शंकर – क्षमा करिए।
शिव को मानाने के लिए वह रुद्रदेव महादेव की पूजा स्तुति करने लगा।
शिव तांडव वही स्तोत्र हैं और इस स्तोत्र से प्रसन्न होकर ही शिव ने उसे – ‘रावण’ नाम दिया।
ऐसा माना जाता है की महाकाल – महादेव की श्रद्धा पूर्वक उपासना करने से उपासक – जीवन-मृत्यु के काल चक्र से मुक्त हो जाता है.
तांडव स्तोत्र का पाठ भोलेनाथ महादेव शिव का आशीर्वाद प्रदान करता है और “कवच” की भाँती रक्षा करता है.
शिव स्तोत्र का महत्व - Benefit of Shiva Stotram
Shiva Stotram (Shiva Stotram) – भगवान शंकर को प्रसन्न करने के लिए अचूक उपाय है. शिव स्तोत्र के पाठ से उनकी कृपा मिलना निश्चित है. श्रद्धा पूर्वक शिवा तांडव स्तोत्र का पाठ करे. जय महादेव।
शिव स्तोत्रम पाठ - Shiv Stotra in Hindi - 2022
“जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले गलेवलम्ब्यलम्बितां भुजङ्गतुङ्गमालिकाम्।
डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयं चकारचण्डताण्डवं तनोतु नः शिवो शिवम् ॥1॥”
सार एवं अर्थ – हे शिव, आपकी वनरूपी जटाओ से प्रवाहित गंगा माँ की धाराएं, आपके कंठ को प्रक्षालित होती हैं, हे प्रभु आपके गले में लंबे सापों की बड़ी बड़ी मालाएं लटक रहीं हैं, आप अपना डम-डम डमरू बजा कर प्रचण्ड ताण्डव करते हुए हमारा भी कल्यान करने की कृपा कीजिये .
“जटाकटाहसंभ्रमभ्रमन्निलिंपनिर्झरी विलोलवीचिवल्लरी विराजमानमूर्धनि।
धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावके किशोरचंद्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं ममं ॥2॥”
सार एवं अर्थ – कटाहरूप जटाओं में अतिवेग से विलासपूर्वक भ्रमण करती हुई गंगाजी की चंचल लहरें जिन शंकर के शीश पर लहरा रही हैं , जिनके मस्तक में अग्नि की प्रचंड ज्वालाएँ धधक कर प्रज्वलित हो रही हैं, ऐसे बाल चंद्रमा से विभूषित मस्तक वाले शिवजी में मेरा अनुराग (प्रेम) प्रतिक्षण बढ़ता रहे।
“धराधरेंद्रनंदिनी विलासबन्धुबन्धुरस्फुरद्दिगंतसंतति प्रमोद मानमानसे।
कृपाकटाक्षधोरणीनिरुद्धदुर्धरापदि क्वचिद्विगम्बरे मनोविनोदमेतु वस्तुनि ॥3॥”
सार एवं अर्थ- पार्वती (पर्वतराजसुता) के विलासमय रमणीय कटाक्षों से परम आनंदित चित्त वाले (माहेश्वर) रहते हैं. शिव के मस्तक पे ही संपूर्ण सृस्टि का वास। है जिनकी कृपादृष्टि से भक्तों की बड़ी से बड़ी विपत्तियाँ दूर हो जाती हैं, ऐसे (दिशा ही हैं वस्त्र जिसके) दिगम्बर शिवजी की आराधना में मेरा चित्त सदैव आनंदित रहे.
“जटाभुजंगपिंगलस्फुरत्फणामणिप्रभा कदंबकुंकुमद्रवप्रलिप्तदिग्वधूमुखे।
मदांधसिंधुरस्फुरत्वगुत्तरीयमेदुरे मनोविनोदद्भुतं बिंभर्तुभूतभर्तरि ॥4॥ “
सार एवं अर्थ – शिव जी सभी प्राणियों के रक्षक हैं. मैं भी उनकी कृपादृष्टि से उनकी भक्ति में आनंदित रहूं। जो सभी प्राणियों के आधार एवं रक्षक हैं, जटाओं में लिपटे सर्प के फण के मणियों के प्रकाशमान पीले प्रभा-समूह रूप केसर कांति से दिशा बंधुओं के मुखमंडल को चमकाने वाले, मतवाले, गजासुर के चर्मरूप उपरने से विभूषित, प्राणियों की रक्षा करने वाले शिवजी में मेरा मन विनोद को प्राप्त हो।
“सहस्रलोचनप्रभृत्यशेषलेखशेखर प्रसूनधूलिधोरणी विधूसरांघ्रिपीठभूः।
भुजंगराजमालयानिबद्धजाटजूटकः श्रियैचिरायजायतां चकोरबंधुशेखरः ॥5॥”
सार एवं अर्थ – जिन शिव जी के चरण इन्द्रादि देवो के मस्तक के फूलों की धूल से रंजित हैं। सर्पराजों की मालाओं से विभूषित जटा वाले प्रभु- हमें चिरकाल के लिए सम्पदा दें.
“ललाटचत्वरज्वलद्धनंजयस्फुलिङ्गभा निपीतपंचसायकंनमन्निलिंपनायकम्।
सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरं महाकपालिसंपदे शिरोजटालमस्तुनः ॥6॥”
सार एवं अर्थ – जिन भगवान शंकर ने इन्द्रादि देवताओं का गर्व नाश करते हुए, विशाल मस्तक से उत्पन्न अग्नि ज्वाला से कामदेव को भस्म कर दिया, तथा जो सभी देवों द्वारा पूज्य हैं, तथा चन्द्रमा की काँटी और गंगा जी द्वारा सुशोभित हैं, वे मुझे अक्षय संपत्ति और सिद्धि प्रदान करें.
“करालभालपट्टिकाधगद्धगद्धगज्ज्वलद्धनंजया धरीकृतप्रचंडपंचसायके।
धराधरेंद्रनंदिनीकुचाग्रचित्रपत्रकप्रकल्पनैकशिल्पिनी त्रिलोचनेरतिर्मम ॥7॥”
सार एवं अर्थ – जिनके मस्तक से निकली भयंकर ज्वाला ने कामदेव को भस्म किया। जो शिव, पार्वती जी (पर्वत राजसुता) के स्तन के अग्र भाग की चित्रकारी करने में अति चतुर है (पार्वती प्रकृति तथा चित्रकारी सृजन है), उन त्रिलोचन में मेरी प्रीति भी अटल हो.
“नवीनमेघमंडलीनिरुद्धदुर्धरस्फुरत्कुहुनिशीथनीतमः प्रबद्धबद्धकन्धरः।
निलिम्पनिर्झरीधरस्तनोतु कृत्तिसिंधुरः कलानिधानबंधुरः श्रियं जगंद्धुरंधरः ॥8॥”
सार एवं अर्थ- जिनका अति गूढ़ कण्ठ नवीन मेघों की घटाओं से परिपूर्ण आमवस्या की रात्रि के समान घाना अधियारा और काला है, जो कि गज-चर्म, गंगा एवं बाल-चन्द्र द्वारा शोभायमान हैं तथा जो कि जगत के बोझ को धारण करने वाले शिवजी हमको सब प्रकार की सम्पत्ति दें।
“प्रफुल्लनीलपंकजप्रपंचकालिमप्रभा विडंबि कंठकंध रारुचि प्रबंधकंधरम्।
स्मरच्छिदं पुरच्छिंद भवच्छिदं मखच्छिदं गजच्छिदांधकच्छिदं तमंतकच्छिदं भजे ॥9॥”
सार एवं अर्थ – फूले हुए नीलकमल की फैली हुई सुंदर श्याम प्रभा से विभूषित कंठ की शोभा से उद्भासित कंधे वाले एवं कामदेव तथा त्रिपुरासुर के विनाशक, संसार के सभी दु:खों को काटने वाले, दक्षयज्ञ विनाशक, गजासुर एवं अंधकारसुरनाशक और मृत्यु के नष्ट करने वाले श्री शिवजी का मैं भजन करता हूँ।
“अखर्वसर्वमंगला कलाकदम्बमंजरी रसप्रवाह माधुरी विजृंभणा मधुव्रतम्।
स्मरांतकं पुरातकं भावंतकं मखांतकं गजांतकांधकांतकं तमंतकांतकं भजे ॥10॥”
अर्थ एवं सार – कल्याणमय, नाश न होने वाली समस्त कलाओं के रस का अस्वादन करने वाले शिव जो कामदेव को भस्म करने वाले हैं, त्रिपुरासुर, गजासुर, अंधकासुर का वध करने वाले , दक्षयज्ञविध्वंसक तथा स्वयं यमराज के लिए भी यमस्वरूप हैं, मैं उन शिव जी की आराधना करता हु .
“जयत्वदभ्रविभ्रमभ्रमद्भुजंगमस्फुरद्धगद्धगद्विनिर्गमत्कराल भाल हव्यवाट्।
धिमिद्धिमिद्धिमिध्वनन्मृदंगतुंगमंगलध्वनिक्रमप्रवर्तित: प्रचण्ड ताण्डवः शिवः ॥11॥”
अर्थ एवं सार- अतयंत शीघ्र और तेज़ वेग पूर्वक भ्रमण कर रहे सर्पों की फूफकारने से क्रमश: ललाट में बढ़ी हूई प्रचण्ड अग्नि वाले मृदंग की धिम-धिम मंगलकारी उधा ध्वनि के क्रमारोह से चंड तांडव नृत्य में लीन होने वाले शिवजी सब भाँति से सुशोभित हो रहे हैं।
“दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजंगमौक्तिकमस्रजोर्गरिष्ठरत्नलोष्ठयोः सुह्रद्विपक्षपक्षयोः।
तृणारविंदचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः समं प्रवर्तयन्मनः कदा सदाशिवं भजे ॥12॥”
अर्थ एवं सार – चाहे कोमल शय्या हो या कठोर पत्थर, मिटटी के टुकड़े हों, सर्प या मोतियों की बहुमूल्य मालाही क्यों, शत्रू अथवा मित्र , राजाओं तथा प्रजाओं, तिनकों तथा कमलों पर सामान दृष्टि रखने वाले भगवान शिव की हृदय से आराधना करता हु.
“कदा निलिंपनिर्झरी निकुञ्जकोटरे वसन् विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरःस्थमंजलिं वहन्।
विमुक्तलोललोचनो ललामभाललग्नकः शिवेति मंत्रमुच्चरन् कदा सुखी भवाम्यहम् ॥13॥”
अर्थ एवं सार – कब मैं गंगा जी के कछारकुञ्ज में निवास करते हुए, निष्कपट हो, सिर पर अंजली धारण कर चंचल नेत्रों तथा ललाट वाले भगवन शिव जी के मंत्रो का उच्चारण करते हुए परम अक्षय सुख को प्राप्त करूंगा?
“निलिम्प नाथनागरी कदम्ब मौलमल्लिका-निगुम्फनिर्भक्षरन्म धूष्णिकामनोहरः।
तनोतु नो मनोमुदं विनोदिनींमहनिशं परिश्रय परं पदं तदंगजत्विषां चयः ॥14॥ “
अर्थ एवं सार – मैं कामना करता हु के देवांगनाओं के सिर में गूंथे पुष्पों की मालाओं के झड़ते हुए सुगंधमय पराग से मनोहर, परम शोभा के धाम महादेवजी के अंगों की सुंदरताएं परमानंद युक्त हमारे मन की प्रसन्नता को सर्वदा बढ़ाती रहें.
“प्रचण्ड वाडवानल प्रभाशुभप्रचारणी महाष्टसिद्धिकामिनी जनावहूत जल्पना।
विमुक्त वाम लोचनो विवाहकालिकध्वनिः शिवेति मन्त्रभूषगो जगज्जयाय जायताम् ॥15॥”
अर्थ एवं सार – प्रचण्ड बड़वानल की भांति पापों को भस्म करने में स्त्री स्वरूपिणी अणिमादिक अष्ट महासिद्धियों तथा चंचल नेत्रों वाली देवकन्याओं से शिव विवाह समय में गान की गई मंगलध्वनि सब मंत्रों में परमश्रेष्ठ शिव मंत्र से पूरित, सांसारिक दुःखों को नाश कर विजय पाएं.
“इमं हि नित्यमेव मुक्तमुक्तमोत्तम स्तवं पठन्स्मरन् ब्रुवन्नरो विशुद्धमेति संततम्।
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथागतिं विमोहनं हि देहनां सुशंकरस्य चिंतनम् ॥16॥”
अर्थ एवं सार- इस महान और अति उत्तम – शिव ताण्डव स्त्रोत को नियमानुसार पढ़ने या सुनने से भी प्राणी पवित्र हो, परमगुरू शिव की भक्ति में लीं हो जाता है और और सभी प्रकार के भ्रमों से मुक्त होता है .
“पूजावसानसमये दशवक्रत्रगीतं यः शम्भूपूजनपरम् पठति प्रदोषे।
तस्य स्थिरां रथगजेंद्रतुरंगयुक्तां लक्ष्मी सदैव सुमुखीं प्रददाति शम्भुः ॥17॥”
अर्थ एवं सार – प्रात: शिव पूजा के अंत में इस रावणकृत – “शिव ताण्डव स्तोत्र” के पाठ (पढ़ने ) करने से माँ लक्ष्मी सदा स्थिर रहती हैं। शिव भक्त – रथ, गज, घोड़ा आदि सुख संपदा से सर्वदा युक्त रहता है.
॥ इति रावणकृतं शिव ताण्डव स्तोत्रं संपूर्णम् ॥
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